सनातन धर्म सास्वत हैःदंडी स्वामी महेश्वरा नंद सरस्वती जी महाराज
-ग्राम गदनपुर ठठिया के चित्रमाली श्री हनुमान मंदिर प्रांगण में चल रही श्रीमद् भागवत कथा में उमड़ी भीड़
कन्नौज ब्यूरो पवन श्रीवास्तव के साथ प्रिंस श्रीवास्तव
हिंदुस्तान न्यूज एक्सप्रेस कन्नौज संवाददाता।तहसील सदर क्षेत्र के ग्राम गदनपुर ठठिया के चित्रमाली श्री हनुमान मंदिर प्रांगण में चल रही श्रीमद् भागवत कथा में रविवार को चतुर्थ दिवस की कथा में चित्रकूट धाम से पधारे सरस कथा वाचक श्रद्धेय दंडी स्वामी महेश्वरा नंद सरस्वती जी महाराज ने सनातन धर्म की महिमा बताई। उन्होने कहा कि सनातन धर्म सास्वत है, सदियों तक सनातन को मिटाने की चेष्टा धर्म विरोधियों के द्वारा होती रही, लेकिन सनातन धर्म का अस्तित्व शास्वत है विश्व में कई धर्म अस्तित्व में आए और एक समय के बाद समाप्त प्रायः हो गए किन्तु सनातन धर्म की उत्पत्ति वेदों से हुई है।सनातन धर्म के रक्षक और चलाने वाले स्वयं ईश्वर ही हैं। सनातन का अर्थ ही है सदा सदा अस्तित्व में रहने वाला सनातन धर्म में गहरी परम्परा है।जिसमें सजीव और निर्जीव में भी ईश्वर का स्वरूप देखा जाता है। सनातन धर्मावलंबी अतिथि को देवता की संज्ञा देते हैं।नदियों को और धरती को गाय माता मानकर उनका सत्कार और पूजन करते हैं।गाय को देवताओं का वास मानते हुए माता की तरह पूज्य मानते हैं।जब समुद्र मंथन के समय मंड्याचल पर्वत नीचे की ओर धसने लगा तो देवताओं ने श्री गणेश पूजन किया।इसके बाद प्रसन्न होकर भगवान ने कच्छप का रूप धारण कर मंड्याचल पर्वत को अपनी पीठ पर धारण किया। उसके बाद समुद्र मंथन से विभिन्न प्रकार के रत्न निकले किन्तु उसी से हलाहल विष निकला।जिससे देवताओं में कोलाहल मच गया सभी देवता भगवान शिव के पास दौड़ कर गए। उन्होने कहा कि भगवान देवाधि देव महादेव भोले नाथ ने लोक कल्याण के लिए हलाहाल विष पान किया, तभी से उनका नाम नीलकंठ महादेव पड़ा।उन्होने कहा कि जब समुद्र मंथन से अमृत निकला सारे असुर आपस में अमृत कलश की छीना झपटी करने लगे, इससे देवता निराश होकर भगवान विष्णु का ध्यान करने लगे तभी भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धरके प्रकट हुए असुर मोहिनी के रुप पर मोहित हो गए फिर मोहिनी ने अमृत कलश लेकर बड़ी चतुरता से अम्रत देवताओं में बांट दिया। गुरु शुक्राचार्य के शिष्य राजा बली से बार बार पराजित होकर जब देवता भगवान विष्णु की शरण में गए तो भगवान ने बामन अवतार लेकर राजा बली से तीन पग भूमि मांग कर तीनों लोक अपने अधिपत्य किए किन्तु जब दो पग में सारे लोक नाम लिए तब राजा बली ने अपनी पत्नी के साथ तीसरे पग के भूमि के रुप में अपने आपको भगवान की सेवा में समर्पित कर दिया तभी देवता भगवान के साथ असुर राज बली की पुष्प वर्षा कर जय जय कार करने लगे।